Bulleh shah – सय्यद अब्दुल्ला शाह क़ादरी (शाहमुखी/गुरुमुखी) जीने बुल्ले शाह के नाम से भी जाना जाता है एक पंजाबी दार्शनिक एवं संत थे। उनके पहले आध्यात्मिक गुरु संत सूफी मुर्शिद शाह इनायत अली थे, वे लाहौर से थे। बुल्ले शाह को मुर्शिद से आध्यामिक ज्ञान रूपी खाजने की प्राप्ति हुई और उन्हें उनकी करिश्माई ताकतों के कारण पहचाना जाता था।
पश्तो सूफी कवि रहमान बाबा (१६५३-१७११) के बाद बुल्ले शाह का अवतरण हुआ। वे और सिन्धी सूफी कवि शाह अब्दुल लतीफ़ भित्ताई (१६८९-१७५२) एक ही काल के हैं। इनके जीवन कल में ही पंजाबी कवि वारिस शाह (१७२२-१७९८) भी हुए। वारिस शाह को हीर रंखा के ज़माने के कवि के रूप में भी पहचाना जाता है। और इसी काल में सिन्धी सूफी कवि अब्दुल वहाब(१७३९-१८२९) भी अस्तित्व में थे जिन्हें सचल सरमस्त के नाम से भी जाना जाता है। आगरा के उर्दू कवि मीर ताकी मीर से करीबन 400 मिल दूर बुल्ले शाह रहते थे।

शाह हुसैन (१५३८-१५९९) और सुलतान बाहू (१६२९-१६९१) के द्वारा शुरू की गयी पंजाबी सूफी कवि संस्कृति के ही कवि थे बुल्ले शाह।
बुल्ले शाह पंजाबी और सिन्धी कविता में कफी श्रेणी को प्रचलित किया।
बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ
आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?'
'जेहड़ा सानू स​ईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ
जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ
सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ'

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