संसार का भ्रमण करते हुए गुरु नानक सच्चे पातशाह ओर मरदाना किसी जंगल से जा रहे थे मरदाना ने कहा महाराज बहुत भूख लगी हैं नानक जी नो कहा मरदाना
रोटियां सेंक ले, मरदाना ने कहा बहुत ठंड हैं ना तो कोई चुल्हा हैं और न ही कोई तवा हैं और पानी भी बहुत ठंडा हैं तालाब छोटा था जैसे ही गुरु नानक जी ने तालाब क पानी को स्पर्श किया तो पानी उबाल मारने लगा नानक देव जी ने कहा
मरदाना अब रोटी सेंक ले मरदाने ने आटे की चक्कियां बना कर उस तालाब में डालने लगें रोटियां तो सिक्की नहीं आटे की चक्की डूब गई, दुसरी चक्की डाली वह भी डूब गई फिर एक ओर डाली वह भी डूब गई मरदाना नो आकर नानक जी से कहा कि महाराज आप कहते हो रोटियां सेंक ले, रोटियां तो कोई सिक्की नहीं बल्कि सारी चक्कियां डूब गई सच्चे पातशाह कहने लगे मरदाना नाम जप कर रोटियां सेंकी थी मरदाना चरणों में गिर गया महाराज गलती हो गई नानक देव जी कहने लगे मरदाना नाम जप कर रोटियां सेंक मरदाना ने नाम जप कर पानी में चक्की डाली तो चमत्कार हो गया रोटियां तो सिक्क गई बल्कि डूबीं हुई रोटियां भी तैर कर ऊपर आ गई और सिक्क गई मरदाना ने सच्चे पातशाह से पूछा महाराज ये क्या चमत्कार हैं नानक देव जी ने कहा मरदाना नाम के अंदर वो शक्ति हैं कि नाम जपने वाला अपने आप तैरने (भव सागर से पार होना) लगता हैं और आसपास के माहौल को तार देता हैं जहां गुरु नानक देव जी ने तालाब को स्पर्श कर ठंडे पानी
को गरम पानी में उबाल दिया वो आज भी वहीं हैं जिसका नाम “मणिकरण साहिब” हैं
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Bulleh shah – सय्यद अब्दुल्ला शाह क़ादरी (शाहमुखी/गुरुमुखी) जीने बुल्ले शाह के नाम से भी जाना जाता है एक पंजाबी दार्शनिक एवं संत थे। उनके पहले आध्यात्मिक गुरु संत सूफी मुर्शिद शाह इनायत अली थे, वे लाहौर से थे। बुल्ले शाह को मुर्शिद से आध्यामिक ज्ञान रूपी खाजने की प्राप्ति हुई और उन्हें उनकी करिश्माई ताकतों के कारण पहचाना जाता था।
पश्तो सूफी कवि रहमान बाबा (१६५३-१७११) के बाद बुल्ले शाह का अवतरण हुआ। वे और सिन्धी सूफी कवि शाह अब्दुल लतीफ़ भित्ताई (१६८९-१७५२) एक ही काल के हैं। इनके जीवन कल में ही पंजाबी कवि वारिस शाह (१७२२-१७९८) भी हुए। वारिस शाह को हीर रंखा के ज़माने के कवि के रूप में भी पहचाना जाता है। और इसी काल में सिन्धी सूफी कवि अब्दुल वहाब(१७३९-१८२९) भी अस्तित्व में थे जिन्हें सचल सरमस्त के नाम से भी जाना जाता है। आगरा के उर्दू कवि मीर ताकी मीर से करीबन 400 मिल दूर बुल्ले शाह रहते थे।

शाह हुसैन (१५३८-१५९९) और सुलतान बाहू (१६२९-१६९१) के द्वारा शुरू की गयी पंजाबी सूफी कवि संस्कृति के ही कवि थे बुल्ले शाह।
बुल्ले शाह पंजाबी और सिन्धी कविता में कफी श्रेणी को प्रचलित किया।
बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ
आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?'
'जेहड़ा सानू स​ईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ
जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ
सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ'

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TERI MEHAR MERA SAI

 
जब गुरु जी (Shri Guru Nanak Dev Ji) पूरब दिशा कि तरफ बनारस जा रहे थे तो रास्ते में मरदाने ने कहा महाराज! आप मुझे जंगल पहाडों में ही घुमाए जा रहे हो, मुझे बहुत भूख लगी है| अगर कुछ खाने को मिल जाये तो कुछ खाकर चलने के लायक हो जाऊंगा| उस समय गुरु जी रीठे के वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे|
 आप ने वृक्ष के ऊपर देखा और मरदाने से कहने लगे, अगर तुम्हे भूख लगी है तो रीठे कि टहनी को हिलाकर रीठे गेरकर खा लो|
मरदाने ने गुरु जी (Shri Guru Nanak Dev Ji) के हुक्म का पालन किया| उसने टहनी को हिलाया व रीठो को नीचे गिरा दिया| जब मरदाने ने रीठे खाए तो वो छुहारे कि तरह मीठे थे| उसने पेट भरकर रीठे खाए| इस वृक्ष के रीठे आज भी मीठे है जो नानक मते जाने वाले प्रेमियों को प्रसाद के रूप में दिए जाते है| 
Dosto hume guru ke charno ma rhana shik lena chiye 
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Sant Kabir G

Kabir Ke Dohe : जब भी हम दोहों के बारे में बात करते है तो संत कबीर का नाम सबसे पहले आता है, उनके साहित्य के योगदान को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता, उनकी रचनाएँ, भजन, और दोहे बहुत प्रसिद्ध है। यह पर संत कबीर दास के दोहे – Kabir Ke Dohe हिंदी अर्थ सहित दे रहें है। जो आपको जरुर उपयोगी साबित होंगे।

संत कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित – Kabir Ke Dohe in Hindi with meaning

दोहा “जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।”
अर्थ – जीवन में जो लोग हमेशा प्रयास करते हैं वो उन्हें जो चाहे वो पा लेते हैं जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता हैं। लेकिन कुछ लोग गहरे पानी में डूबने के डर से यानी असफल होने के डर से कुछ करते ही नहीं और किनारे पर ही बैठे रहते हैं।
कबीर दोहा “कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह। देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।”
हिन्दी अर्थ – जब तक यह देह है तब तक तू कुछ न कुछ देता रह। जब देह धूल में मिल जायगी, तब कौन कहेगा कि ‘दो’।
दोहा  “देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह। निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह।”
अर्थ – मरने के पश्चात् तुमसे कौन देने को कहेगा ? अतः निश्चित पूर्वक परोपकार करो, यही जीवन का फल है।
दोहा “या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत। गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।”
अर्थ – इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।
कबीर दोहा “ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।”
हिन्दी अर्थ – मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।
दोहा “गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह। आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह।”
अर्थ – जो गाँठ में बाँध रखा है, उसे हाथ में ला, और जो हाथ में हो उसे परोपकार में लगा। नर-शरीर के पश्चात् इतर खानियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यही ले-लो।
दोहा  “धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर। अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।”
अर्थ – धर्म (परोपकार, दान सेवा) करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटना नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।
दोहा “कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय। साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।”
अर्थ – उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट (दुष्टों)तथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।
Kabir Dohe “कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत। साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।”
Hindi Meaning – गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो। क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है’।
दोहा  “जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय। जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।”
अर्थ – ‘आहारशुध्दी:’ जैसे खाय अन्न, वैसे बने मन्न लोक प्रचलित कहावत है और मनुष्य जैसी संगत करके जैसे उपदेश पायेगा, वैसे ही स्वयं बात करेगा। अतएव आहाविहार एवं संगत ठीक रखो।
दोहा “कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव। स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव।”
अर्थ – अपने को सर्वोपरि मानने वाले अभिमानी सिध्दों के स्थान पर भी मत जाओ। क्योंकि स्वामीजी ठीक से बैठने तक की बात नहीं कहेंगे, बारम्बार नाम पूछते रहेंगे।
दोहा “इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति। कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति।”
अर्थ – उपास्य, उपासना-पध्दति, सम्पूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले, वहीँ पर जाना सन्तों को प्रियकर होना चाहिए।
दोहा “कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर। इन्द्रिन को तब बाँधीया, या तन किया धर।”
अर्थ – सन्तों के साधी विवेक-वैराग्य, दया, क्षमा, समता आदि का दल जब परिपूर्ण रूप से ह्रदय में आया। तब सन्तों ने इद्रियों को रोककर शरीर की व्याधियों को धूल कर दिया। अर्थात् तन-मन को वश में कर लिया।
दोहा “गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै। कोटी सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परे। कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै। गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै।”
अर्थ – यदि अपने ह्रदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, ओ मिली हुई गली भारी ज्ञान है। सहन करने से करोड़ों काम (संसार में) सुधर जाते हैं। और शत्रु आकर पैरों में पड़ता है। यदि ज्ञान ह्रदय में आ जाय, तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है ?

श्री रविदास की बुद्धिमत्ता 15वीं शताब्दी में, वाराणसी के पास सीर गोवर्धनपुर नामक एक छोटे से गाँव में, रविदास नामक एक विनम्र मोची रहता था। नि...